लोक महत्व के विषय एवं नियमों के अंतर्गत प्रक्रियाएं

सर्व प्रथम मैं माननीय अध्यक्ष और विधानसभा सचिवालय का आभारी हूं कि एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय पर यहां आपसे चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए तीन दशक से ज्यादा हो चुके है। विधानसभा की लगातार सेवा करते हुए भी अनेक कार्यकाल बीत गए है लेकिन प्रक्रिया और कार्यप्रणाली के क्षेत्र में आज भी मेरी स्थिति एक छात्र की ही है। ब्रिटेन के एक प्रसिद्ध सांसद ने हाऊस ऑफ कॉमन्स के बारे में कहा था- आई एम चाइल्ड ऑफ दिस हाऊस अर्थात् यह सदन मेरे लिए मां के समान है। इतने वर्षो बाद मुझे इस एक पंक्ति का बस यही अर्थ समझ में आया कि इस सदन की गोद में खेलते हुए हमने बहुत से सबक लिए है। जनहित क्या है, प्रशासन क्या है, संसदीय जवाबदेही क्या है, कैसे निर्वाचन क्षेत्र, प्रदेश और देश के हितों की रक्षा की जाए, यह सब समझने की बातें है। बिना इन्हें समझे, शांति पूर्वक पूर्व उदाहरणों का अध्ययन और मनन किए एक सफल विधायक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करना संभव नहीं होता।

विधानसभा की प्रक्रिया से अब हम सभी का थोड़ा बहुत परिचय हो चुका है। जो सदस्य पहली बार चुनकर आये है, वे भी बढ़ चढ़कर सदन की कार्यवाही में भाग ले रहे हैं। सब जानते है कि यह सदन संविधान के प्रावधानों, प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों, माननीय अध्यक्ष के स्थायी आदेशों और मान्य परंपराओं के आधार पर संचालित होता है। एक सामान्य व्यक्ति के रूप में हमारे जो संस्कार और छत्तीसगढ़ महतारी की संसदीय संस्कृति है वह हमें यहां जनहित के मामलों पर चर्चा करने के लिए लगातार प्रेरित करती है। कभी कभी उत्तेजना के क्षणों में हमारे सदस्य नियमों की सीमा को पार कर जाते है, ऐसी स्थिति में पीठासीन अधिकारी अर्थात् अध्यक्ष जी और सभापति तालिका के वरिष्ठ सदस्य हमारा मार्गदर्शन करते है। यह सारी व्यवस्था जनहित के लिए बनाई गई है। संसदीय लोकतंत्र में जनहित सबसे बड़ी कसौटी है क्योंकि किसी भी जनप्रतिनिधि का अंतिम लक्ष्य जनहित का साधन करना होता है। जनहित कोई स्थिर अवधारणा नहीं है। यह देश, काल और परिस्थिति के अनुसार निर्धारित की जाती है।

वैदिक काल से ही जनहित को पूरा करने के लिए ऋग्वेद में सभा और समिति नाम की संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। न्याय, निष्पक्षता, विवेक और धर्म के बताये रास्ते पर चलकर ये संस्थाएं पूरे राष्ट्र और समाज का कल्याण करती थीं। महाभारत काल तक सभाओं का वर्चस्व बना रहा, बाद में राजा भी अपने पार्षदों और मंत्रियों की सहायता से जनहित के कार्य करते रहे। हमारे आदिवासी समुदाय में तो पंचायत जैसी व्यवस्थाएं बहुत पुराने समय से प्रचलित रही है। आज संविधान के अंतर्गत संघ स्तर पर संसद, राज्य स्तर पर विधान मंडल और स्थानीय स्तर पर निर्वाचित निकाय जनहित के लिए बनाई गई सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालनन करते हैं।

विधानसभा के प्रक्रिया नियमों में अनेक ऐसे उपायों का उल्लेख है जिनके माध्यम से जनहित की अमूर्त अवधारणा को वास्तविकता के ठोस धरातल पर उतारा जा सकता है। विधान मंडल के प्रति कार्यपालिका के उत्तरदायित्व को रेखांकित करने वाले प्रश्नकाल से ही शुरू करें। जनहित के किसी भी ऐसे मुद्दे को जिस पर शासन की विशिष्ट जवाबादारी बनती है, प्रश्न के माध्यम से उठाया जा सकता है। तारांकित, अतारांकित या अल्प सूचना प्रश्न और इन प्रश्नों से उद्भूत होने वाली आंधे घंटे की चर्चा - जनहित पर जवाबदेही का यही सबसे संवेदनशील समय होता है। अध्यक्ष जी द्वारा ग्राह्य किए गए सभी प्रश्नों पर सरकार को जवाब देना होता है। हॉं, सुरक्षा और जनहित में कोई जानकारी देने से शासन द्वारा इंकार किया जा सकता है। हालांकि ऐसी स्थितियां अपवाद स्वरूप कभी कभार बनती है लेकिन यह व्यवस्था है कि अध्यक्ष जी की सहमति से शासन द्वारा लोक-सुरक्षा और जनहित में जानकारी देने से मना किया जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर संवेदनशील जनहित के मुद्दों पर सदन की गोपनीय बैठक की जा सकती है। संविधान लागू होने के बाद राज्य विधान मंडलांे में पहली बार इस तरह की गोपनीय बैठक छत्तीसगढ़ की विधानसभा में नक्सल समस्या को लेकर हुई थी। तत्कालीन अध्यक्ष माननीय प्रेमप्रकाश पाण्डेय जी ने सदन के नेता डॉ. रमन सिंह और नेताप्रतिपक्ष स्व. महेन्द्र कर्मा की सहमति से जनहित पर विमर्श का वह ऐतिहासिक अवसर हमें उपलब्ध कराया था।

अविलंबनीय लोक महत्व के ऐसे मामले जो तात्कालिक स्वरूप के हों उन्हें स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से उठाया जाता है। संसदीय प्रणाली के ब्रम्हास्त्र के रूप में प्रसिद्ध काम रोको प्रस्ताव को गाह्य किए जाने की दशा में इस पर सदन में प्रथम उपलब्ध अवसर पर चर्चा होती है। इसमें भी जनहित अथवा लोक महत्व का विशेष स्थान है। कोई मामला सार्वजनिक महत्व का है या नहीं इसको तय करने की कोई निश्चित कसौटी नहीं है यह अध्यक्ष जी पर छोड़ दिया गया है। वह सदन से बिना पूछे इस पर अंतिम निर्णय देते हैं। इस संबध में लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री मावलंकर ने 17 मई, 1952 को यह व्यवस्था दी थी । मेरी राय में प्रश्न केवल यह है कि पृष्ठभूमि और सदन के कार्य के स्वरूप को देखते हुए, ऐसे दंगे या तनाव पर जैसा कि घटित होना कहा गया है, स्थगन-प्रस्ताव रखना उचित होगा अन्यथा नहीं, इसलिए मैं इस दृष्टि से इसे सार्वजनिक महत्व का विषय नहीं मानता। निश्चय ही महत्व का विषय सदैव ही एक सापेक्ष प्रश्न होता है और हमें उसकी तरह ही किसी घटना के महत्व को देश के सम्पूर्ण प्रशासन की पृष्ठभूमि में देखना होगा। मैं इस प्रस्ताव पर केवल इसी आधार पर अपनी सहमति नहीं देना चाहता हूं।’’ स्थगन के संबंध में यह बात ध्यान देने की है कि किसी सत्तारूढ़ दल के सदस्यों द्वारा नहीं लाया जा सकता। कारण स्पष्ट है कि इसमें सरकार के प्रति निंदा का तत्व जुड़ा रहता है।

ध्यानाकर्षण की व्यवस्था सभी अशासकीय सदस्यों के लिए उपलब्ध है। यह जनहित के मुद्दों को सदन में उठाने की बहुत कारगार प्रणाली है। सामान्यतः एक दिन की कार्य सूची में दो ध्यानाकर्षण सूचनाएं ही शामिल की जाती हैं, किन्तु सूचनाओं की संख्या को देखते हुये, अध्यक्ष जी कभी-कभी कार्यसूची में तीन सूचनाएं भी शािमल करने का आदेश दे देते हैं, और उसके अनुसार सदन को सूचना दे दी जाती हैं। अंतिम दिन, अध्यक्ष द्वारा पहले से ही गाह्य की गई शेष सूचनाएं कार्य सूची में सम्मिलित कर ली जाती हैं। सदन का समय बचाने की की दृष्टि से प्रथम दो या तीन सूचनाओं के उत्तर मंत्री सदन में पढ़कर सुनाता है, और शेष सूचनाओं के उत्तर सदन के पटल पर रख दिये माने जाते हैं। अलग- अलग प्रांतो में उनके अलग-अलग नियमों के अनुसार यह कार्य किया जाता है। यदि किसी कारण से ध्यानाकर्षण सूचना किसी सत्र में नहीं ली जाती, तो वह सूचना समाप्त हो जाती है। ध्यानाकर्षण का सबसे बड़ा आर्कषण इसका टू इन वन होना है। सूचना पर सदस्य को अपनी बात कहने का और प्रश्न पूछने का अवसर मिलता है। इस तरह प्रश्न व चर्चा, दोनों के उपयोग से अविलंबनीय लोक महत्व पर शिकायत और निदान या वस्तुस्थिति दोनों ही बातें सदन के सामने आ जाती है।

सार्वजनिक महत्व के विषयों पर चर्चा के दो और तरीके हैं। पहला, नियम 139 और दूसरा, नियम 142-क के अंतर्गत। इन नियमों के माध्यम से कोई भी सदस्य लोक महत्व के विषय को सदन में चर्चा के लिए लाने की पहल कर सकता है। हालांकि बजट सत्र में इस प्रकार की चर्चा के लिए गुंजाइश कम रहती है लेकिन वर्षाकालीन और शीतकालीन सत्र में इस तरह की चर्चाएं बढ़ चढ़कर उपयोग में ली जाती हैं। नियम 139 के अंतर्गत जहां अविलंबनीय लोक महत्व के विषयों पर डेढ़ घंटे की चर्चा संभव ह,ै वही नियम 142 क के अंतर्गत नीति विषयक मामलों को प्राथमिकता दी जाती हैं। इस प्रकार की चर्चाओं में अनेक सदस्यों को अपनी बात कहने का अवसर मिलता है और शासन का पक्ष भी सदन के सामने आ जाता है।

इस तरह हम देखते हैं कि जनता की आशा, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, शिकायतों और सपनों को प्रदेश की सर्वोच्च पंचायत के मंच तक पहुंचाने का सबसे बड़ा उद्देश्य जनहित ही है। जनतंत्र में जनहित सर्वोपरि है- यही हमारे सार्वजनिक जीवन का मूल मंत्र है।